विद्या वाचस्पति पं. मधुसूदन सरस्वती ” इन्द्रविजय ” नामक ग्रंथ में ऋग्वेद के छत्तीसवें सूक्त प्रथम मंत्र का अर्थ लिखते हुए कहते हैं कि ऋभुओं ने तीन पहियों वाला ऐसा रथ बनाया था जो अंतरिक्ष में उड़ सकता था । पुराणों में विभिन्न देवी देवता , यक्ष , विद्याधर आदि विमानों द्वारा यात्रा करते हैं इस प्रकार के उल्लेख आते हैं । त्रिपुरा याने तीन असुर भाइयों ने अंतरिक्ष में तीन अजेय नगरों का निर्माण किया था , जो पृथ्वी, जल, व आकाश में आ जा सकते थे और भगवान शिव ने जिन्हें नष्ट किया ।
रामायण में पुष्पक विमान का वर्णन है । महाभारत में श्री कृष्ण, जरासंध आदि के विमानों का वर्णन आता है । भागवत में कर्दम ऋषि की कथा आती है । तपस्या में लीन रहने के कारण वे अपनी पत्नी की ओर ध्यान नहीं दे पाए । इसका भान होने पर उन्होंने अपने विमान से उसे संपूर्ण विश्व कादर्शन कराया ।
उपर्युक्त वर्णन जब आज का तार्किक व प्रयोगशील व्यक्ति सुनता या पढ़ता है तो उसके मन में स्वाभाविक विचार आता है कि यें सब कपोल कल्पनाएं हैं मानव के मनोंरंजन हेतु गढ़ी कहानियॉ हैं । ऐसा विचार आना सहज व स्वाभाविक है क्योंकि आज देश में न तो कोई प्राचीन अवशेष मिलते हैं जों सिद्ध कर सकें कि प्राचीनकाल में विमान बनाने की तकनीक लोग जानते थें ।
केवल सौभागय से एक ग्रन्थ उपलब्ध है, जो बताता है कि भारत में प्राचीनकाल में न केवल विमान विद्या थी, अपितु वह बहुत प्रगत अवस्था में भी थी । यह ग्रंथ इसकी विषय सूची में व इसमें किया गया वर्णन विगत अनेक वर्षों से अपने देश व विदेश में अध्येताओं को आकर्षित कर रहा है । गतवर्ष दिल्ली के एक उद्योगपति श्री सुबोध जी से प्राचीन भारत में विज्ञान की स्थिति के संदर्भ में बात हो रही थी ।
बातचीत में उन्होंन अपना एक अनुभव बताया । सुबोध जी के छोटे भाई अमेरिका में नासा में काम करते हैं । १९७३ में उनका नासा से फोन आया कि भारत में महर्षि भारद्वाज का विमानशास्त्र पर कोई ग्रन्थ है । वह नासा में कार्यरत उनके अमेरिकी मित्र वैज्ञानिक को चाहिए । यह सुनकर सुबोध जी को आश्चर्य हुआ , क्योंकि उन्होंने भी प्रथम बार ही इस ग्रन्थ के बारे में सुना था । बाद में प्रयन्त करके मैसूर से वह ग्रन्थ प्राप्त् करके उसे अमेरिका भिजवाया।
सन् 1994 में गोरखपुर से प्रकाशित ( कल्याण ) के ” हिन्दू संस्कृति ” अंक में श्री दामोदर जी साहित्याचार्य ने हमारी प्राचीन वैज्ञानिक कला नामक लेख में इस ग्रंथ का विस्तार से उल्लेख किया है । अभी दो तीन वर्ष पूर्व बेंगलूर के वायुसेना के सेवा निवृत्त अभियंता श्री प्रह्लाद राव की इस विषय में जिज्ञासा हुई और उन्होंने अपने साथियों के सहयोग से एक प्रकल्प वैमानिक शास्त्र रीडिसकवर्ड लिया तथा अपने गहन अध्ययन व अनुभव के आधार पर यह प्रतिपादित किया कि इस ग्रंथ में अत्यंत विकसित विमान विद्या का वर्णन मिलता है । नागपुर के श्री एम. के. कावड़कर ने भी इस ग्रंथ पर काफी काम किया है।
महर्षि भारद्वाज यंत्र सर्वस्व नामक ग्रंथ लिखा था, उसका एक भाग वैमानिक शास्त्र है । इस पर बोधानन्द ने टीका लिखी थी । आज यंत्र सर्वस्व तो उपलब्ध नहीं है तथा वैमानिक शास्त्र भी पूरा उपलब्ध नहीं है । पर जितना उपलब्ध होता है , उससे यह विश्वास होता है कि पूर्व में विमान एक सच्चाई थे । । इस ग्रंथ के पहले प्रकरण में प्राचीन विज्ञान विषय के पच्चीस ग्रंथों की एक सूची है, जिनमें प्रमुख है अगस्त्यकृत – शक्तिसूत्र, ईश्वरकृत – सौदामिनी कला, भरद्वाजकृत – अशुबोधिनी, यंत्रसर्वसव तथा आकाश शास्त्र, शाकटायन कृत – वायुतत्त्व प्रकरण, नारदकृत – वैश्वानरतंत्र, धूम प्रकरण आदि ।
विमान शास्त्र की टीका लिखने वाले बोधानन्द लिखते है –
निर्मथ्य तद्वेदाम्बुधिं भरद्वाजो महामुनिः ।
नवनीतं समुद्घृत्य यन्त्रसर्वस्वरूपकम् ।
प्रायच्छत् सर्वलोकानामीप्सिताज्ञर्थ लप्रदम् ।
तस्मिन चत्वरिंशतिकाधिकारे सम्प्रदर्शितम् ॥
नाविमानर्वैचित्र्यरचनाक्रमबोधकम् ।
अष्टाध्यायैर्विभजितं शताधिकरणैर्युतम ।
सूत्रैः पञ्चशतैर्युक्तं व्योमयानप्रधानकम् ।
वैमानिकाधिकरणमुक्तं भगवतास्वयम् ॥
अर्थात – भरद्वाज महामुनि ने वेदरूपी समुद्र का मन्थन करके यन्त्र सर्वस्व नाम का ऐसा मक्खन निकाला है , जो मनुष्य मात्र के लिए इच्छित फल देने वाला है । उसके चालीसवें अधिकरण में वैमानिक प्रकरण जिसमें विमान विषयक रचना के क्रम कहे गए हैं । यह ग्रंथ आठ अध्याय में विभाजित है तथ्ज्ञा उसमें एक सौ अधिकरण तथा पाँच सौ सूत्र हैं तथा उसमें विमान का विषय ही प्रधान है ।
ग्रंथ के बारे में बताने के बाद भ्ज्ञरद्वाज मुनि विमान शास्त्र के उनसे पपूर्व हुए आचार्य उनके ग्रंथों के बारे में लिखते हैं वे आचार्य तथा उनके ग्रंथ निम्नानुसार हैं ।
(1) नारायण कृत – विमान चन्द्रिका ( 2) शौनक कृत न् व्योमयान तंत्र (3) गर्ग – यन्त्रकल्प (4) वायस्पतिकृत – यान बिन्दु + (5) चाक्रायणीकृत खेटयान प्रदीपिका (6) धुण्डीनाथ – व्योमयानार्क प्रकाश
इस ग्रन्थ में भरद्वाज मुनि ने विमान की परिभाषा , विमान का पायलट जिसे रहस्यज्ञ अधिकारी कहा गया , आकाश मार्ग , वैमानिक के कपड़े , विमा के पुर्जे , ऊर्जा , यंत्र तथा उन्हें बनाने हेतु विभिन्न धातुओं का वर्णन किया गया है ।
विमान की परिभाषा
अष् नारायण ऋषि कहते हैं जो पृथ्वी, जल तथा आकाश में पक्षियों के समान वेग पूर्वक चल सके, उसका नाम विमान है ।
शौनक के अनुसार- एक स्थान से दूसरे स्थान को आकाश मार्ग से जा सके , विश्वम्भर के अनुसार – एक देश से दूसरे देश या एक ग्रह से दूसरे ग्रह जा सके, उसे विमान कहते हैं ।
रहस्यज्ञ अधिकारी ( पायलट ) – भरद्वाज मुनिक हते हैं, विमान के रहस्यों को जानने वाला ही उसे चलाने का अधकारी है । शास्त्रों में विमान चलाने के बत्तीस रहस्य बताए गए हैं । उनमा भलीभाँति ज्ञान रखने वाला ही उसे चलाने का अधिकारी है । शास्त्रों में विमान चलाने के बत्तीस रहस्य बताए गए हैं । उनका भलीभाँति ज्ञान रखने वाला ही सफल चालक हो सकता है । क्योंकि विमान बनाना, उसे जमीन से आकाश में ले जाना, खड़ा करना, आगे बढ़ाना टेढ़ी – मेढ़ी गति से चलाना या चक्कर लगाना और विमान के वेग को कम अथवा अधिक करना उसे जाने बिना यान चलाना असम्भव है । अतः जो इन रहस्यों को जानता है , वह रहस्यज्ञ अधिकारी है तथा उसे विमान चलाने का अधिकारी है तथा उसे विमान चलाने का अधिकार है ।
( ३ ) कृतक रहस्य – बत्तीस रहस्यों में यह तीसरा रहस्य है , जिसके अनुसार विश्वकर्मा , छायापुरुष , मनु तथा मयदानव आदि के विमान शास्त्र के आधार पर आवश्यक धातुओं द्वारा इच्छित विमान बनाना , इसमें हम कह सकते हैं कि यह हार्डवेयर का वर्णन है ।
( ४ ) गूढ़ रहस्य – यह पाँचवा रहस्य है जिसमें विमान को छिपाने की विधि दी गयी है । इसके अनुसार वायु तत्त्व प्रकरण में कही गयी रीति के अनुसार वातस्तम्भ की जो आठवीं परिधि रेखा है उस मार्ग की यासा , वियासा तथा प्रयासा इत्यादि वायु शक्तियों के द्वारा सूर्य किरण रहने वाली जो अन्धकार शक्ति है, उसका आकर्षण करके विमान के साथ उसका सम्बन्ध बनाने पर विमान छिप जाता है ।
( ५ ) अपरोक्ष रहस्य – यह नवाँ रहस्य है । इसके अनुसार शक्ति तंत्र में कही गयी रोहिणी विद्युत् के फैलाने से विमान के सामने आने वाली वस्तुओं को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है ।
( १० ) संकोचा – यह दसवाँ रहस्य है । इसके अनुसार आसमान में उड़ने समय आवश्यकता पड़ने पर विमान को छोटा करना ।
( ११ ) विस्तृता – यह ग्यारवाँ रहस्य है । इसके अनुसार आवश्यकता पड़ने पर विमान को बड़ा करना । यहाँयह ज्ञातव्य है कि वर्तमान काल में यह तकनीक १९७०के बाद विकसित हुई है ।
( २२ ) सर्पागमन रहस्य – यह बाइसवाँ रहस्य है जिसके अनुसार विमान को सर्प के समान टेढ़ी – मेढ़ी गति से उड़ाना संभव है । इसमें काह गया है दण्ड, वक्रआदि सात प्रकार के वायु औरसूर्य किरणों की शक्तियों का आकर्षण करके यान के मुख में जो तिरछें फेंकने वाला केन्द्र है उसके मुख में उन्हें नियुक्त करके बाद में उसे खींचकर शक्ति पैदा करने वाले नाल में प्रवेश करानाचाहिए । इसके बाद बटन दबाने से विमान की गति साँप के समान टेढ़ी – मेढ़ी हो जाती है ।
( २५ ) परशब्द ग्राहक रहस्य – यह पच्चीसंवा रहस्य है । इसमें कहा गया है कि सौदामिनी कला ग्रंथ के अनुसार शब्द ग्राहक यंत्र विमान पर लगाने से उसके द्वज्ञरा दूसरे विमान पर लोगों की बात-चीत सुनी जा सकती है ।
( २६ ) रूपाकर्षण रहस्य – इसके द्वारा दूसरे विमानों के अंदर का सबकुछ देखा जा सकता था ।
( २८ ) दिक्प्रदर्शन रह्रस्य – दिशा सम्पत्ति नामक यंत्र द्वारा दूसरे विमान की दिशा ध्यान में आती है ।
( 29) स्तब्धक रहस्य – एक विशेष प्रकार का अपस्मार नामक गैस स्तम्भन यंत्र द्वारा दूसरे विमान पर छोड़ने से अंदर के सब लोग बेहोश हो जाते हैं ।
( ३0 ) कर्षण रहस्य – यह बत्तीसवाँ रहस्य है , इसके अनुसार अपने विमान का नाश करने आने वाले शत्रु के विमान पर अपने विमान के मुख में रहने वाली वैश्र्वानर नाम की नली में ज्वालिनी को जलाकर सत्तासी लिंक ( डिग्री जैसा कोई नाप है ) प्रमाण हो, तब तक गर्म कर फिर दोनों चक्कल की कीलि ( बटन ) चलाकर शत्रु विमानों पर गोलाकार से उस शक्ति की फैलाने से शत्रु का विमान नष्ट हो जाता है ।
यह भी जानें – Ancient Plane ; जब अफगानिस्तान में मिला महाभारतकालीन विमान
आकाश मार्ग
महर्षि शौनक आकाश मार्ग का पाँच प्रकार का विभाजन करते हैं तथा धुण्डीनाथ विभिन्न मार्गों की ऊँचाई विभिन्न मार्गों की ऊँचाई पर विभिन्न आवर्त्त या whirlpools का उल्लेख करते हैं और उस ७ उस ऊँचाई पर सैकड़ों यात्रा पथों का संकेत देते हैं । इसमें पृथ्वी से १०० किलोमीटर ऊपर तक विभिन्न ऊँचाईयों पर निर्धारित पथ तथा वहाँ कार्यरत शक्तियों का विस्तार से वर्णन करते हैं ।
आकाश मार्ग तथा उनके आवर्तों का वर्णन निम्नानुसार है –
10 km ( 1 ) रेखा पथ – शक्त्यावृत्त – whirlpool of energy
50 km ( 2 ) – वातावृत्त – wind
60 km ( 3 ) कक्ष पथ – किरणावृत्त – solar rays
80 km ( 4 ) शक्तिपथ – सत्यावृत्त – cold current
वैमानिक का खाद्य – इसमें किस ऋतु में किस प्रकार का अन्न हो इसका वर्णन है । उस समय के विमान आज से कुछ भिन्न थे । आज ते विमान उतरने की जगह निश्चित है पर उस समय विमान कहीं भी उतर सकते थे । अतः युद्ध के दौरान जंगल में उतरना पड़ा तो जीवन निर्वाह कैसे करना , इसीलिए १०० वनस्पतियों का वर्णन दिया है जिनके सहारे दो तीन माह जीवन चलाया जा सकता है ।
एक और महत्वपूर्ण बात वैमानिक शास्त्र में कही गयी है कि वैमानिक को दिन में ५ बार भोजन करना चाहिए । उसे कभी विमान खाली पेट नहीं उड़ाना चाहिए । 1990 में अमेरिकी वायुसेना ने 10 वर्ष के निरीक्षण के बाद ऐसा ही निष्कर्ष निकाला है ।
विमान के यन्त्र – विमान शास्त्र में 31 प्रकार के यंत्र तथा उनका विमान में निश्चित स्थान का वर्णन मिलता है । इन यंत्रों का कार्य क्या है इसका भी वर्णन किया गया है । कुछ यंत्रों की जानकारी निम्नानुसार है –
( १ ) विश्व क्रिया दर्पण – इस यंत्र के द्वारा विमान के आसपास चलने वाली गति- विधियों का दर्शन वैमानिक को विमान के अंदर होता था, इसे बनाने में अभ्रक तथा पारा आदि का प्रयोग होता था ।
( २ ) परिवेष क्रिया यंत्र – इसमें स्वाचालित यंत्र वैमानिक यंत्र वैमानिक का वर्णन है ।
( ३ ) शब्दाकर्षण मंत्र – इस यंत्र के द्वारा २६ किमी. क्षेत्र की आवाज सुनी जा सकती थी तथा पक्षियों की आवाज आदि सुनने से विमान को दुर्घटना से बचाया जा सकता था ।
( ४ ) गुह गर्भ यंत्र -इस यंत्र के द्वारा जमीन के अन्दर विस्फोटक खोजने में सफलता मिलती है ।
( ५ ) शक्त्याकर्षण यंत्र – विषैली किरणों को आकर्षित कर उन्हें उष्णता में परिवर्तित करना और उष्णता के वातावरण में छोड़ना ।
( ६ ) दिशा दर्शी यंत्र – दिशा दिखाने वाला यंत्र
( ७ ) वक्र प्रसारण यंत्र – इस यंत्र के द्वारा शत्रु विमान अचानक सामने आ गया, तो उसी समय पीछे मुड़ना संभव होता था ।
( ८ ) अपस्मार यंत्र – युद्ध के समय इस यंत्र से विषैली गैस छोड़ी जाती थी ।
( ९ ) तमोगर्भ यंत्र – इस यंत्र के द्वारा शत्रु युद्ध के समय विमान को छिपाना संभव था । तथा इसके निर्माण में तमोगर्भ लौह प्रमुख घटक रहता था ।
ऊर्जा स्रोत – विमान को चलाने के लिए चार प्रकार के ऊर्जा स्रोतों का महर्षि भरद्वाज उल्लेख करते हैं । ( १ ) वनस्पति तेल जो पेट्रोल की भाँति काम करता था ।
( २ ) पारे की भाप – प्राचीन शास्त्रों में इसका शक्ति के रूप में उपयोग किए जाने का वर्णन है । इस के द्वारा अमेरिका में विमान उड़ाने का प्रयोग हुआ , पर वह ऊपर गया, तब विस्फोट हो गया । परन्तु यह तो सिद्ध हुआ कि पारे की भाप का ऊर्जा की तरह प्रयोग हो सकता है । आवश्यकता अधिक निर्दोष प्रयोग करने की है ।
( ३ ) सौर ऊर्जा – इसके द्वारा भी विमान चलता था । ग्रहण कर विमान उड़ना जैसे समुद्र में पाल खोलने पर नाव हवा के सहारे तैरता है इसी प्रकार अंतरिक्ष में विमान वातावरण से शक्ति ग्रहण कर चलता रहेगा । अमेरिका में इस दिशा में प्रयत्न चल रहे हैं । यह वर्णन बताता है कि ऊर्जा स्रोत के रूप में प्राचीन भारत में कितना व्यापह प्रचार हुआ था ।
विमान के प्रकार – विमान विद्या के पूर्व आचार्य युग के अनुसार विमानों का वर्णन करते हैं । मंत्रिका प्रकार के विमान जिसमें भौतिक एवं मानसिक शक्तियों के सम्मिश्रण की प्रक्रिया रहती थी वह सतयुग और त्रेता युग में सम्भव था । इनके ५६ प्रकार बताए गए हैं तथा कलियुग में कृतिका प्रकार के यंत्र चालित विमान थे इनके २५ प्रकार बताए हैं । इनमें शकुन,रुक्म, हंस, पुष्कर, त्रिपुर आदि प्रमुख थे । उपर्युक्त वर्णन पढ़ने पर कुछ समस्याएँ व प्रश्न हमारे सामने आकर खडे+ होते हैं । समस्या यह है आज के विज्ञान की शब्दावली व नियमावली से हम परिचित हैं, परन्तु प्राचीन विज्ञान , जो संस्कृ त में अभिव्यक्त हुआ है , उसकी शब्दावली , उनका अर्थ तथा नियमावली हम नहीं जानते । अतः उनमें निहित रहस्य को अनावृत्त करना पड़ेगा । दूसरा , प्राचीन काल में गलत व्यक्ति के हाथ में विद्या न जाए , इस हेतु बात को अप्रत्यक्ष ढंग से , गूढ़ रूप में , अलंकारिक रूप में कहने की पद्धति थी । अतः उसको भी समझने के लिए ऐसे लोगों के इस विषय में आगे प्रयत्न करने की आवश्यकता है , जो संस्कृत भी जानते हों तथा विज्ञान भी जानते हों ।
विमान शास्त्र में वर्णित धातुएं – दूसरा प्रश्न उठता है कि क्या विमान शास्त्र ग्रंथ का कोई ऐसा भाग है जिसे प्रारंभिक तौर पर प्रयोग द्वज्ञरा सिद्ध किया जा सके । यदि कोई ऐसा भाग है , तो क्या इस दिशा में कुछ प्रयोग हुए हैं । क्या उनमें कुछ सफलता मिली है?
सौभाग्य से इन प्रश्नों के उत्तर हाँ में दिए जा सकते हैं । हैदराबाद के डॉ. श्रीराम प्रभु ने वैमानिक शास्त्र ग्रंथ के यंत्राधिकरण को देखा , तो उसमें वर्णित ३१ यंत्रों में कुछ यंत्रों की उन्होंने पहचान की तथा इन यंत्रों को बनाने वाली मिश्र धातुओं का निर्माण सम्भव है या नहीं , इस हेतु प्रयोंग करने का विचार उनके मन में आया । प्रयोग हेतु डॉ. प्रभु तथा उनके साथियों ने हैदराबाद स्थित बी. एम. बिरला साइंस सेन्टर के सहयोग से प्राचीन भारतीय साहित्य में वर्णित धातुएं , दर्पण आदि का निर्माण प्रयोगशाला में करने का प्रकल्प किया और उसके परिणाम आशास्पद हैं ।
अपने प्रयोंगों के आधार पर प्राचीन ग्रंथ में वर्णित वर्णन के आधार पर दुनिया में अनुपलब्ध कुछ धातुएं बनाने में सफलता उन्हें मिली है ।
प्रथम धातु है तमोगर्भ लौह । विमान शास्त्र में वर्णन है कि यह विमान अदृश्य करने के काम आता है । इस पर प्रकाश छोड़ने से ७५ से ८० प्रतिशत प्रकाश को सोख लेतो है । यह धातु रंग में काली तथा शीशे से कठोर तथा कान्सन्ट्रेटेड सल्फ्यूरिक एसिड में भी नहीं गलती ।
दूसरी धातु जो बनाई है, उसका नाम है पंच लौह । यह रंग में स्वर्ण जैसा है तथा कठोर व भारी है । ताँबा आधारित इस मिश्र धातु की विशेषता यह है कि इसमें सीसे का प्रमाण ७.९५ प्रतिशत है , जबकि अमेरिकन सोसायटी ऑफ मेटल्स ने कॉपर बेस्ड मिश्र धातु में सीसे का अधिकतम प्रमाण ०.३५ से ३ प्रतिशत संभव है यह माना है । इस प्रकार ७.९५ सीसे के मिश्रण वाली यह धातु अनोखी है।
तीसरी धातु है आरर । यह ताँबा आधारित मिश्र धातु है , जो रंग में पीली और कठोर तथा हल्की है । इस धातु में तमेपेजंदबम जव उवपेजनतम का गुण है । बी. एम. बिरला साइंस सेन्टर के डायरेक्टर डॉ. बी. जी. सिद्धार्थ ने उन धातुओं को बनाने में सफलता की जानकारी एक पत्रकार परिषद में देते हुए बताया कि इन धातुओं को बनाने में खनिजों के साथ विभिन्न औषधियाँ , पत्ते , गोंद , पेड़ की छाल , आदि का भी उपयोग होता है । इस कारण जहाँ इनकी लागत कम आती है , वहीं कुछ विशेष गुण भी उत्पन्न होते हैं । उन्होनें कहा कि ग्रंथ में वर्णित अन्य धातुओं का निर्माण और उस हेतु आवश्यक साधनों की दिशा में देश के नीति निर्धारक सोचेंगे , तो यह देश के भविष्य की दृष्टि से अच्छा होगा।
इसी प्रकार प्ण्प्ण्ज्ण् मुंबई के रसायन शास्त्र विभाग के डॉ. माहेश्वर शेरोन ने भी इस ग्रंथ में वर्णित तीन पदार्थों को बनाने का प्रयत्न किया है । ये थे चुम्बकमणि जो गुहगर्भ यंत्र में काम आती है और उसमें परावर्तन ( रिफ्लेक्शन ) को अधिगृहीत ( कैप्चर ) करने का गुण है । पराग्रंधिक द्रव – यह एक प्रकार का एसिड है , जो चुम्बकमणि के साथ गुहगर्भ यंत्र में काम आता है ।
इसी प्रकार विमान शास्त्र में एक और अधिकरण है दर्पणाधिकरण , जिसमें विभिन्न प्रकार के काँच और उनके अलग अलग गुणों का वर्णन है । इन पर वाराणसी के हरिश्चन्द्र पी. जी. कॉलेज के रीडर डॉ. एन. जी. डोंगरे ने । ” The study of various materials described in Amsubodhini of Maharshi Bharadwaja ”
इस प्रकल्प के तहत उन्होंने महर्षि भरद्वाज वर्णित दर्पण बनाने का प्रयत्न नेशनल मेटलर्जीकल लेबोरेटरी जमशेदपुर में किया तथा वहाँ के निदेशक पी. रामचन्द्र राव जो आजकल बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति हैं , के साथ प्रयोग कर एक विशेष प्रकार का कांच बनाने में सफलता प्राप्त की , जिसका नाम प्रकाश स्तभंन भिद् लौह है । इसकी विशेंषता है कि यह दर्शनीय प्रकाश को सोखता है तथा इन्फ्रारैड प्रकाश को जाने देता है । इसका निर्माण
कचर लौह – Silic
a भूचक्र सुरमित्रादिक्षर – Lime
अयस्कान्त – Lodestone
इनके द्वारा अंशुबोधिनी में वर्णित विधि से किया गया है । प्रकाश स्तंभन भिद् लौह की यह विशेषता है कि यह पूरी तरह से नॉन हाईग्रोस्कोपिक है , हाईग्रोस्कोपिक इन्फ्रारेड वाले काँचों में पानी की भाप या वातावरण की नमी से उनका पॉलिश हट जाता है और वे बेकार हो जाते हैं । आजकल ब्ंथ्२ यह बहुत अधिक हाईग्रोस्कोपिक है । अतः इनके यंत्रों के प्रयोग में बहुत अधिक सावधानी रखनी पड+ती है जबकि प्रकाश स्तंभन भिद् लौह के अध्ययन से यह सिद्ध हुआ है कि इन्फ्रारैड सिग्नल्स में यह आदर्श काम करता है तथा इसका प्रयोग वातावरण में मौजूद नमी के खतरे के बिना किया जा सकता है।
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